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بلند الحيدري

بلند الحيدري
#عبد الحسين شعبان#
باحث ومفكر عربي

… إلى بلند

نولدُ في الغربة أم نموتُ؟
هل تعرف الأشجار والبيوت؟
وجوهنا
وإننا
نولد كل ساعة
نموت كل ساعة
وحولنا تولد أو تموت
الناس والأشجار والبيوت

سعدي يوسف
I
حين أهداني ديوانه الأخير دروب في المنفى كتب لي: ... فأنا المسيح يجرّ في المنفى صليبه ، والفقرة هي مقطع من قصيدة غريب على الخليج لبدر شاكر السيّاب، وعلّق بلند قائلاً: وهكذا ننتقل من منفى إلى منفى، واستعدنا المقطع الذي قبله وأكملنا :
حتى الظلام- هناك أجمل، فهو يحتضن العراق،
وا حسرتاه، متى أنام؟
فأحسّ أن على الوسادة
من ليلك الصيفي طلّاً فيه عطرك يا عراق
بين القرى المتهيّبات خطاي والمدن الغريبة
غنيّت تربتك الحبيبة
وحملتها ، فأنا المسيح يجرّ في المنفى صليبه.

وردّدت عليه وأنا أتصفّح الديوان بين يدي:
أهرب من منفى إلى منفى
وأنا لا أحمل في صدري إلّا رمسي ...
لكنني إنْ متُ هنا في الغربة .. في المنفى
إنْ متُ غداً فسيحمل شاهد قبري: هذا وطني
هذا من أجلك يا وطني..
(من ديوان دروب في المنفى)
وبالمناسبة فهذه الأبيات وضعت على شاهد قبره في مقبرة هاي غيت في لندن بالقرب من قبر كارل ماركس وقبور عدد من المنفيين اليساريين العراقيين.
ودار بيننا حديث حول الغربة والوطن والهويّة واستذكر بلند، الشاعر اليمني عبدالله البردوني وردّد على مسامعي:
بلادي من يدي طاغ إلى أطغى إلى أجفى
ومن سجن إلى سجن ومن منفى إلى منفى
ومن مستعمر بادٍ إلى مستعمر أخفى
ومن وحش إلى وحشين وهي النّاقة العجفا

ولعلّ ذلك ما كان ينطبق على حالنا حيث أكلت المنافي أكثر من نصف عمرنا البيولوجي، وما يقارب ثلثي عمرنا الإبداعي، وكنتُ قد اتصلت به بعد وصولي إلى لندن العام 1990، وكان هو قد استقرّ فيها بعد سنوات ثلاثة عشر عاشها في بيروت، لكن منفى بلند الفعلي كان قبل هذا التاريخ، حين تمرّد على مجتمعه ، وعاش حالة من الاغتراب، فترك الدراسة في سن مبكّرة وهجر العائلة، ليس هذا فحسب، بل انشقّ على القصيدة العمودية التي عاشها الشعر العربي لمئات السنين، باحثاً عن معنى جديد وشكل جديد ورسالة جديدة.
أسّس بلند مع ثلّة من أصحابه جماعة أدبية فنّية أطلق عليها اسم جماعة الوقت الضائع وهو في بداية مشواره الإبداعي، لتكون مقهىً وملتقىً ومبيتاً أحياناً كما يقول، وأصدرت الجماعة مجلة بالاسم ذاته، وقد أغلقتها الشرطة حين اعتبرتها ملاذاً للمتشرّدين من أمثال الشاعر حسين مردان.
في فتوّته مارس بلند أنواع الرياضة ورغب أن يكون ملاكماً مقلّداً شقيقه صفاء الذي كان هو الآخر شاعراً ومتمرداً، حيث نصب خيمة سوداء في بساتين ديالى (بعقوبة) وقرر العيش فيها تحدّياً للتقاليد الاجتماعية السائدة، وكان صفاء قد انشغل بالشعر واللغة العربية وهو ما فعله بلند أيضاً، علماً بأنهما ينتميان إلى عائلة برجوازية حسب توصيفات تلك الأيام، فوالده أكرم كان ضابطاً بالجيش العراقي وتوفي العام 1945، ووالدته فاطمة ابراهيم أفندي الحيدري التي كان والدها يشغل منصب شيخ الإسلام في اسطنبول (توفيت العام 1942)، وخاله داود كان وزيراً للعدل، لكن بلند قرر إحراجه وإحراج العائلة حين نصب طاولة منهكة وكرسياً بالياً ليعمل كاتب عرائض (عرضحالجي) أمام الوزارة، وفي الوقت الذي كان عدد من أفراد عائلته يتولى مناصب رسمية ، كان عدد آخر منهم قد انخرطوا في الحركة الشيوعية من أبرزهم جمال الحيدري الذي قتل تحت التعذيب وشقيقه مهيب أيضاً بعد انقلاب شباط (فبراير) العام 1963.
لم يدرس بلند الشعر في جامعة أو معهد، بل جاء إليه من خارج المناهج الأكاديمية والحلقات الدراسية، في حين كان أقرانه قد درسوا الشعر والأدب واللغة في دار المعلمين العالية وكليات الآداب والتربية فيما بعد، مثل بدر شاكر السيّاب ونازك الملائكة وعبد الوهاب البياتي ولميعة عباس عمارة وعبد الرزاق عبد الواحد وسعدي يوسف ورشدي العامل وآخرين، وحاول بلند تثقيف نفسه بنفسه وكان يذهب إلى المكتبة العامة لسنوات غير قليلة، ويقرأ، بل يلتهم ما فيها من الكتب المختلفة في الأدب والشعر والفن واللغة والفلسفة وعلم النفس، وكان يبقى لساعة متأخرة من الليل، بالاتفاق مع حارس المكتبة الذي عقد صداقة خاصة معه .
II
في مهرجان أصيلة (المغرب) الأخير 2018 كان بلند الحيدري الغائب الحاضر، تأملت صورته بأناقته المعهودة وحضوره الهادئ وهي تتصدّر يافطاتٍ عُلّقت في أماكن عديدة في تلك المدينة الجميلة المستلقية بغنج على البحر ، وكان الاسم يتكرّر، خصوصاً يوم تكريم اثنين من الشعراء المبدعين هما الشابان: نسيمة الراوي من المغرب ومحمد المغربي من تونس، بمنحهما جائزة بلند الحيدري بصفته أحد من رموز الحداثة الشعرية، فقد كان بلند حداثياً قبل ما نعرفه عن زمن الحداثة، حيث يعتبر أحد أركان الحركة التجديدية في الشعر العربي الحديث، ولعلّ ديوانه خفقة الطين الصادر في العام 1946 هو الأول الذي يؤرخ لحركة الشعر الحر والتي أعقبت الحرب العالمية الأولى، وامتدّت إلى الفنون الأخرى، أما أركانها فهي المربع الذهبي، فإضافة إلى ركنها الأول بلند كانت الأركان الثلاثة نازك الملائكة وبدر شاكر السياب وعبد الوهاب البياتي.
وكان بدر شاكر السيّاب في العام 1953 قد اعترف بذلك قائلاً: كان هناك ثلاثة دواوين صدرت في العراق أولها - ديوان خفقة الطين لبلند الحيدري وثانيها- ديوان عاشقة الليل لنازك الملائكة، وثالثها- ديوان أزهار ذابلة لبدر شاكر السيّاب، وفتحت هذه الدواوين صفحة جديدة في تاريخ الشعر العراقي والعربي. وقد كتب عن مجموعته الأولى بانبهار الأديب اللبناني مارون عبود في العام 1947 يقول: أشهد أن ديوان بلند الحيدري- خفقة الطين، أفضل ما قرأت من دواوين الشباب بالشعر، ولعلّه الشاعر الذي تحلم به بغداد.
وقد ظلّ بلند يخفق كل حياته في الضياع والمنفى والغربة، وضمّت مجموعته الأخيرة دروب المنفى 1996 خفقته الوداعية وحملت قصيدته الأخيرة في المجموعة ما بين ذراعي أمي حنينه الأول إلى البئر الأولى حسب رواية جبرا ابراهيم جبرا، وهو حنين يشبه الارتعاش حين يقابل الموت الذي بقي هاجساً قائماً في جميع مراحل حياته وإبداعه:
ذات مساء ماتت أمي
وعلى مدّ ذراعيها استلقيت وكانت عينيّ
فانوساً أعمى يحملني من تيهٍ ولتيهٍ يبحث عنّي
في حيّ موبوء .. في حي
أخشى أن لا يبقى حتى غبش الظن.

وإذا كانت القصائد الأولى أقرب إلى التجريب، فإنه بدا أكثر عمقاً وشمولاً بارتفاع الموجة الجديدة من الشعر الحر، بحيث أصبح جزءًا من مدرسة أخذت تحفر طريقها بثقة أكبر وتحدٍّ أشد في مواجهة القصيدة الكلاسيكية، وخصوصاً بعد أن أصدر ديوانه الثاني أغاني المدينة الميتة في العام 1951 وأعاد نشره في العام 1957 مع قصائد أخرى، وفي العام 1961 نشر مجموعة بعنوان جئتم مع الفجر ضمّت قصائد ما بعد ثورة 14 تموز (يوليو) 1958 وهو ما يوحي منها عنوانها.
وبعد تجربة سجنه نشر مجموعة جديدة (1965) تحت اسم خطوات في الغربة ثم رحلة الحروف الصفر 1968 وأغاني الحارس المُتعب 1971 والتي نالت جائزة اتحاد الكتاب اللبنانيين، ثم نشر في العام 1972 بعد عودته إلى بغداد، مجموعة بعنوان حوار الأبعاد الأربعة، وبعد منفاه اللندني نشر في العام 1984 إلى بيروت مع تحياتي وفي العام 1990 أبواب إلى البيت الضيق، وكان آخر مجموعة له دروب في المنفى 1996.
لقيت الحركة التجديدية في الشعر تشجيع ودعم وتأييد بعض المبدعين الذين كان يُنظر إليهم كمرجعية للحداثة وكان من أبرزهم في العراق الناقد والأديب الفلسطيني جبرا ابراهيم جبرا، الذي يقول عنه بلند في حديث مع الكاتب (1991) أنه أكثر من استقبل نتاجهم الإبداعي بإعجاب وتشجيع، حيث كان يرى في بلند وبدر شاكر السيّاب شاعرين مجدّدين وإن اختلف أسلوبهما في كتابة القصيدة الحديثة ، وكان يؤكد على بدر الاستمرار في أسلوبه ما دامت الصور تومي كل واحدة منها إلى الأخرى، فبدر عين وذاكرة مرهفة مليئة بالصور، ويعترف بلند أن مفرداته كانت أغنى من مفرداتي.
أما عن شعر بلند فيقول جبرا ابراهيم جبرا في العام 1951 أنه شعر صُور، فهو كالفنان الحاذق لا يلقي بالألوان على لوحته جزافاً ولا يرسل الخطوط عليها أنّى اتجهت، إنه يورد تفاصيله مرتبطة متماسكة، فتنمو القصيدة بين يديه نموّاً من الداخل ككل الأعضاء الحيّة، وإذا بها وحدة متكاملة لها أول ووسط ونهاية كما يقول أرسطو في وصف العمل الفني الصحيح، ويضيف جبرا: إن شعر بلند كالصور ذات الأعماق، فيها أضواء وظلال، فيها القريب وفيها البعيد وكلّها تستهدف وحدة الموضوع وقوته وبروز جماله.
III
كم كنتُ سعيداً حين اطّلعت على الكتاب الذي أصدره المنتدى الثقافي العربي - الأفريقي والموسوم بلند الحيدري- اغتراب الورد، وأشرف على إعداده عيسى مخلوف، منشورات جمعية المحيط الثقافية، أصيلة ، المغرب، ط1، 1997، وذلك لمناسبة الذكرى الأولى لرحيله، والكتاب هو أقرب إلى استفتاء جديد على شعر بلند الحيدري بعد رحيله واعتراف برياديّته.
وقد تضمّن إضافة إلى كلمتيْ التقديم لمحمد بن عيسى والمدخل لعيسى مخلوف 7 دراسات معمّقة لعبده وازن ومحي الدين اللّاذقاني وصبحي حديدي ورفعت سلام وعابد خزندار وبنعيسى أبو همالة وأسعد عرابي، إضافة إلى شهادات وآراء عددها 22 لشعراء ونقّاد بينهم أدونيس وسعدي يوسف ونزار قباني وأحمد عبد المعطي حجازي وأدوارد الخرّاط والطيّب صالح ومحمد سعيد الصكّار وعباس بيضون وضياء العزاوي وجابر عصفور وآخرين.
وجاء في كلمة محمد بن عيسى، الوزير والدبلوماسي والمثقف وصاحب مبادرة مهرجان أصيلة عن بلند لم يكن بلند الحيدري شاعراً مجدّداً فقط، وإنما كان أيضاً من قلّة من المبدعين الذين تآخى في حياتهم القول والفعل. كان ينتصر للقيم الإنسانية الرفيعة، وكان مثالاً لها، وهذا ما جعله في صراع دائم مع عالم لا يستجيب لرؤيته وحساسيته الشفافة المرهفة...
وسبب غبطتي عند اطلاعي على كتاب اغتراب الورد يعود إلى الشهادة الجماعية برياديّة بلند، الذي لم تُنصف تجربته في حياته من جانب الكثير من النقّاد، باستثناءات محدودة، وضاعت أحياناً في سجال التراتبية الزمنية والأسبقية والقصيدة الموزونة أو النثرية والخروج على الوزن والقافية، على عكس تجارب السياب وعبد الوهاب البياتي ونازك الملائكة، وفي بعض هذا التقييم دور للسياسة التي تُعلي وتُخفض، فبموجبها مُنح عدد من الشعراء ألقاباً بعضهم لا يستحقها وذيّلت أو قدّمت أسماءهم بألقاب من خارج دائرة الشعر والإبداع، والأمر لا يختص بالشعر، بل بعموم مفردات الثقافة والإبداع.
وحسب تفسير سعدي يوسف فإن الأمر يعود إلى الرافعة السياسية، ففي حين كان السيّاب والبياتي في دائرة اليسار، وكانت نازك في الدائرة القومية العربية، كان بلند في زاويته الوجودية الجمالية القلقة والمتوتّرة يبحث عن فردانية وأناه وسط صخب الشعارات وضجيج الأصوات، لأنه كان يريد صوته الخاص لإحساسه بالفجيعة والتشتّت والفراغ، في إطار نزعته التشاؤمية والأسى الذي انطوى عليه شعره، يضاف إلى ذلك إن بلند لم تسوّقه مؤسسة، وهو كذلك لم يسوّق نفسه، بل لم يكن يبالي بمثل تلك التصنيفات والأوصاف والصفات، وكان يكفيه أنه مبدع وله صوته الخاص وكبرياؤه المتميّز.
وحين كان يُسأل بلند عن الريادة والأولوية كان يجيب بشيء من عدم الاكتراث وكأن الأمر لا يعنيه، ويردّد أحياناً لا يحتاج الأمر إلى كل هذا التحبير، وبقدر ما أغفلت أو أهملت تجربته ودوره الريادي فقد عومل في سنوات اغترابه، سواء في لبنان وعلى امتداد الوطن العربي، بما يستحقه من مكانة وتقدير، أما شموخه الذي كان يتعامل به فهو مستقى من اسمه الذي يعني باللغة الكردية شامخ كصاحب الشأن ذاته.
وحتى وإنْ كانت صوره باذخة وأنيقة ونبرته قوية وواثقة، إلّا أن لغته كانت مقتصِدة، لتعبّر عن الإيجاز والتكثيف فقد كتب بلند قصيدته بتركيز كبير أقرب إلى أسلوب البرقيات، وهو ما دعا جبرا ابراهيم جبرا إلى أن يطلق على بلند بحق صاحب القصيدة التلغرافية البرقية، فقد كان يعرف المدى الذي يريد الوصول إليه تعبيراً عن الذات وتناقضاتها، حيث امتلك القدرة على ضخّ أكبر كميّة من الصور والإيحاءات والمعاني بأقل كميّة من الكلمات.
ويقول بلند معترفاً بنصيحة جبرا: أصبح همّي الرئيس هو الإيجاز في قصائدي، ولعلّ علاقته بالفنون التشكيلية والموسيقى هي التي جعلته يختار هذا الأسلوب، لاسيّما ثقافته الفنيّة المتميّزة قياساً بشعراء الموجة الجديدة، مما أعطى تجربته الشعرية بُعداً جمالياً، خصوصاً حين تكون مفرداته مألوفة وصوره شفافة، في حين كان بدر شاكر السيّاب أقرب إلى التراث، ناهيك عن استخدام مستحدث للأسطورة.
ويعترف بلند في شهادة خاصة عن علاقته ببدر شاكر السيّاب، إنهما كانا قد تأثّرا بالحركة العالمية للشعر الحديث عن طريق المهندس قحطان المدفعي الذي عاد إلى بغداد بعد أن أنهى دراسته في لندن، وقد حمل معه تسجيلات صوتية لعدد من أدباء العصر بينهم: إليوت وآراغون، ويقول إن ذلك كان له تأثير عليه وعلى بدر، حين كنّا نلتقي مرّة في الأسبوع عند قحطان المدفعي لنستمع إلى هذه الاسطوانات لساعات وساعات، ونحاول أن نستلهم منها ما يعطي إضافة جديدة لتجربتنا الشعرية. ويعترف بتسرّب إيقاعية إليوت إلى تجربته الشعرية.

بيروت ... يا موتاً أكبر من تابوت
يا موتاً لا يعرف كيف يموت ...
لن يعرف كيف يموت

كانت بيروت التي عاشها بلند الحيدري بيتاً حميماً ذا أبواب عديدة، وكما يقول: كان لكل منّا أن يجد نفسه في الباب الذي يُريد أن يكون فيه: المسلم مسلم والمسيحي مسيحي والمؤمن مؤمن، ولكل منّا أن يعبّر عن نفسه بكثير من الحريّة، وهي ذاتها بيروت التي عرفتها وكتبت عنها نصاً بعنوان العشق الملوّن يوم كرّمتني الحركة الثقافية في انطلياس 2017 بقولي : لا أستطيعُ استعادةَ ذاكرتي الطّفليةِ المكتظّة بصور مختلفةٍ ومتنوّعةٍ دون أن تشعَّ في إحدى زواياها بيروت بكل رمزيّتها وصباها، تلك التي شكّلت بين تقاسيمِها أغاريدَ شرودي الملّونة وروح تمرّدي الأول، خصوصاً وأنّني ترعرعت في بيئة معاندةٍ كانت جاهزةً ومتفاعلةً ومنفعلة باستشراف الجديد واستقبالِ الحداثةِ والتّطلّعِ للتغيير.
وأضفتُ: هكذا بدأتْ ترتسمُ ملامحُ بيروت الجمال والمدى والتنوّع الثقافي والاجتماعي وكأنّني في فسيفسائيّة تختلطُ وصورة النجف السعيد أو ما يكنّى خدُّ العذراء، حيث يستلقي الشّعرُ متنفِّساً للمدينةَ المحافظةَ التي تآخت مع التمّرد، حتّى تفّجر الفكرُ المنفتحُ في المجتمع المنغلق على حدّ تعبير السيد مصطفى جمال الدّين.
لقد صدرت معظم دواوين بلند في بيروت مثلما صدر معظم كتبي فيها، وقد كانت بيروت في السابق والحاضر، وعلى الرغم مما أصابها ، ملاذاً دافئاً يخفّف من مشاعر الغربة إنْ لم يتجاوزها، لدرجة شعور المرء إنه في بلده، والأمر ينطبق على العديد من المبدعين الذين عاشوا في بيروت بينهم ... محمود درويش ونزار قباني وأدونيس ومعين بسيسو وسعدي يوسف وأنيس الصايغ وعز الدين المناصرة، ووجدوا في بيروت الرئة التي يتنفسون بها هواء الحرية والإبداع والحداثة.
أما النصف الآخر من غربة بلند فقد كان قاسياً على نفسه فيها، وهو مرحلة لندن، وهي ذاتها التي عشتها، ولكن قبل بيروت. وإذا كان في بيروت قد انغمس بالحركة الثقافية وعمل في مدرسة برمّانا مديراً ورئيساً لتحرير مجلة العلوم وكان حضوره مبرّزاً في مجالسها الأدبية وأنشطتها الثقافية والفكرية وحلقاتها النقاشية وأماسيها الشعرية، فإنه في لندن، ولاسيّما في السنوات الأولى عانى الكثير، خصوصاً مع تعمّق مأساة العراق، حيث شهد حرباً ضروساً دامت ثماني سنوات (1980-1988) مع إيران، ثم حرباً لقوات التحالف على العراق (العام 1991)، وذلك بعد مغامرة الحكم في العراق غزو الكويت في 2 آب/ أغسطس/1990، وفي تلك الفترة كتب قصائد عديدة مناجاة لوطنه المفقود وغير القادر من الوصول إليه والمهدّد من جميع الجهات ، وظلّ حلم العودة يراوده:
هل لي أن أحلم يا مدينتي بالرجوع لدارنا المطفأة الشموع؟
هل لي أن أعود فأوقظ المصباح وأفتح الشباك للنجوم والغيوم والريح؟
هل لي أن أحلم بالرجوع لكل ما في قلبك المقروح من دموع ؟
... ...
هل لي أن أحلم يا مدينتي أن أعود؟
أبحث عن عينيّ بين دفتي كتاب مفتوح تركته عند الباب
فاصفّر في أوراقه عتاب
أود لو يعود
أريد أن أعود من قبل أن يجفّ في الوعود
سؤالها عن تائه الريح والأرصفة السوداء والضباب
هل لي أن عدتُ غداً لمدينتي
هل لي أن أسأل عن وطن لا عن كفن؟
V
أتذكّر حين ازدادت المخاطر التي تهدّد العراق ورفض حاكمه الانصياع للمناشدات والقرارات التي طالبته بالانسحاب من الكويت والاستماع إلى صوت العقل، تنادى عدد من المثقفين والباحثين والسياسيين العراقيين، للقاء واجتمعنا في البداية مجاميع مصغّرة، ضمّت: صلاح عمر العلي ونوري عبد الرزاق وبلند الحيدري وإياد علاوي وفاروق رضاعة وتحسين معلة واسماعيل القادري وعبد الحسين شعبان، وفكّرنا بالسبل المتاحة لدرء كارثة الحرب والضغط من أجل نزع الفتيل، ناهيك عن ضرورة إظهار صوت آخر، يدين الغزو ويدعو لإنسحاب القوات العراقية دون قيد أو شرط، من جهة، ومن جهة أخرى القول إن هذه الحرب ليست باسمنا، مثلما لم يكن الغزو باسمنا.
وقد تدارسنا الأمر وقرّرنا إصدار نداء إلى الرأي العام بعد مداولات مع قوى وشخصيات أخرى، وقلّبنا جميع الاحتمالات بما فيها ردود الفعل العربية والدولية، خصوصاً حين تأكّد لنا أن الحرب قائمة لا محال وكان لا بدّ أن يُسمع صوت العراقيين من خارج دائرة النظام وبعيداً عن جعجعة السلاح، ودعانا الأخ صلاح عمر العلي في منزله في منطقة ايلينغ بلندن، وهناك اتفقنا على إصدار النداء، الذي كان لي شرف كتابته، والذي حمل بعدين متوازيين أولهما- إدانة غزو الكويت ومطالبة الحاكم الانسحاب فوراً، وتفويت الفرصة على القوى الإمبريالية والصهيونية، لكي لا تستفيد من التصدّع الحاصل، بل والشرخ الكبير في التضامن العربي، وثانيهما- ضرورة مواصلة الجهود للإتيان بنظام حكم ديمقراطي دستوري تعدّدي، يضع حدّاً للاستبداد والإرهاب.
ووقع البيان كما أتذكّر : الأسماء في أعلاه، إضافة إلى موفق فتوحي ومحمد الظاهر ومحمود عثمان وعادل مراد ومهدي الحافظ وصلاح الشيخلي وهاني الفكيكي (انضم إليه) وسمير شاكر محمود الصميدعي وعزيز عليّان وآخرين، لم تسعفني الذاكرة للاحتفاظ بأسمائهم، وأرجو ألّا أكون قد أخطأت ببعضهم، وكم أتمنّى من الأخ والصديق صلاح عمر العلي لو كان يحتفظ بأرشيفه الخاص بالبيان وبأسماء الموقّعين عليه لغرض التوثيق، بهدف نشره، والرجاء موجّه لمن وقّع هذا البيان أو احتفظ به.
وكانت مداولات كثيرة جارية لتشكيل تجمّع للديمقراطيين في لندن وغيرها، وقد نشط فيها بلند الحيدري، وقبلها كانت محاولات أخرى مماثلة، في بداية الثمانينات قد جرت في الشام حيث تم تأسيس التجمع الوطني الديمقراطي الذي أصبح صالح دكله أمينه العام وضمّ مجيد الراضي وابراهيم الحريري وادريس ادريس وآخرين، وكذلك اتحاد الديمقراطيين الذي ترأّسه أبو أيوب وآخر كان محمد الحبوبي على رأسه، والمتّحد الديمقراطي الذي ضم هاني الفكيكي ومحمد بحر العلوم ومصطفى جمال الدين وأيهم السامرائي، لكن هذه التنظيمات لم تتمكّن من مواصلة عملها لأسباب عديدة منها بعض الولاءات لأطراف سياسية وأخرى تتعلّق بظروف الغربة، حيث كانت معظم هذه التنظيمات مهاجرة، وتأثرت أيضاً بالجغرافيا، أي بمكان نشأتها، وهو شأن جميع التنظيمات التي تأسست في الخارج أو طال أمد بقائها فيه، سواء بانشطارها عن أحزاب أم قوى جديدة تأسست، لكنها سرعان ما اختفت أو انطفأت.
وكان اتحاد الديمقراطيين العراقيين الذي تأسس في لندن قد ضم محمد الظاهر (رئيساً) وبلند الحيدري (نائباً للرئيس) وفاروق رضاعة (أميناً عاماً) وقد انضم إلى المؤتمر الوطني العراقي الذي تأسس في فيينا العام 1992، وبالرغم من أن اسم بلند ومجموعة الشخصيات التي انتسبت للاتحاد تمثّل ثقلاً اجتماعياً وثقافياً، لكن دوره كان محدوداً ولم يتمكّن أن يحتل مكانه في ساحة المعارضة التي تتنافس فيها التنظيمات الآيديولوجية، مثل : الحركة الإسلامية والحركة الشيوعية والحركة الكردية، إضافة إلى تنظيمات البعث السوري، وشكّلت هذه المجموعات جبهة العمل المشترك (27 كانون الأول/ديسمبر/1990)، لكنها سرعان ما تفكّكت ودبّت الخلافات بين أطرافها مثلها مثل الجبهة الوطنية والقومية الديمقراطية جوقد التي سبقتها وتأسست في خريف العام 1980 والجبهة الوطنية الديمقراطية جود التي تأسست بعد الأولى بأسبوعين، والمؤتمر الوطني العراقي الذي أعقبها 1992 وانضمت إليه الغالبية الساحقة من القوى المعارضة، لكنه هو الآخر ظلّ فوقياً وغير مؤثر وسرعان ما فقد إمكانات استمراره وانسحبت أو جمّدت علاقاتها به مجموعة الشخصيات والأحزاب والقوى التي أسسته.
وبتقديري إن معارضة بلند وغيره من المثقفين كانت معارضة فكرية وثقافية بالدرجة الأولى، ومعارضة سلمية لمشروع الاستبداد، خصوصاً وأن أعداداً كبيرة أعادت النظر بصيغة الحزب الواحد والحزب القائد والطليعة ودكتاتورية البروليتاريا والعنف وغيرها من الصيغ القديمة، وأقرّت بأهميّة التعدّدية والتنوّع واحترام الخصوصيات، ولذلك كان الاختلاف أمراً لا مفرّ منه مع المشروع السياسي الذي خضع لتأثيرات متعدّدة، دولياً وإقليمياً، بل تم توظيفه لاحقاً ليساهم باحتلال العراق، وللأسف وقع ضحية مثل هذا الوهم أو التواطؤ مثقفون وإعلاميون وأدباء، ناهيك عن سياسيين، أما بسبب عجز في الرؤية أو تعويلات على الخارج أو لمصلحة ضيقة بتبريرية ذرائعية وانقلاب على المفاهيم والقيم الوطنية.
وددتُ الإطلال على هذا الجانب، لأن بلند الحيدري وإن كان له تجربة سياسية سابقة، ولاسيّما بعد ثورة 14 تموز (يوليو) 1958، حين انتمى للحزب الشيوعي وتصدّر مكانه في اتحاد الأدباء الذي كان يرأسه الشاعر الجواهري وبنفوذ ملحوظ من الأدباء الشيوعيين وأصدقائهم، إلّا أنه لم يكن منغمراً في العمل السياسي، بل إن مرارة تجربته بعد اعتقاله في العام 1963 دفعته للابتعاد عنه، لكنه اضطرّ للعودة إليه مجبراً لشعوره بأن بلاده أصبحت على شفا حفرة، فعسى يستطيع الإسهام بانتشالها عبر بث الوعي الديمقراطي والدعوة لإجراء انتخابات وسن دستور جديد للبلاد على أساس التعدّدية والتنوّع والاعتراف بحقوق الشعب الكردي وبالحقوق والحريّات الديمقراطية العامة والخاصة، وهو ما كان العديد من المثقفين يأملونه ويشاطرونه الرأي فيه.
VI
وكنّا قد حضرنا سويّة مؤتمراً للمثقفين في برلين انعقد في مطلع التسعينات وكان يحمل كاميرته التي لا تفارقه، وخلال تلك الفعالية الثقافية أدرجنا في برنامجنا القيام، بثلاث زيارات مهمة:
الزيارة الأولى إلى متحف برلين بيرغامون مدفوعين لمشاهدة الآثار العراقية بشكل خاص والآثار القديمة بشكل عام، حيث يضمُّ المتحفُ آثاراً لحضاراتٍ متنوّعة يعود أقدمها إلى ما يزيد عن 4 آلاف سنة قبل الميلاد. ولعلّ أكثر ما أثارنا هو مشاهدتنا بوابة عشتار وطريق الموكب الذي يعدّ الطريق الرئيسي لمدينة بابل التأريخية، إضافة إلى الرسومات والكتابات المسمارية فوق ألواح الطين والحجر والشمع والمعادن والخزفيات والفخاريات التي تعود إلى أكثر من 6000 سنة .
وكم كان حزننا كبيراً لأن هذه الآثار ليست في متاحفنا، إلّا أن ثمة نوع من الرضا المكبوت كان داخل كل منّا، لأن هذه الآثار محفوظة في أماكن آمنة ويمكن استردادها في ظروف أخرى، ولو كنّا نعلم أن تنظيم داعش الإرهابي سيدمّر النمرود العظيم ومدينة الحضر التاريخية الأثرية والمنارة الحدباء وجامع النبي شيت والنبي يونس، وسيحطّم ثورين مجنّحين عند بوابة نرغال التاريخية في الموصل وغيرها من الآثار التي لا تقدّر بثمن، لكنّا قد تشبّثنا لتبقى آثارنا محفوظة بعيدة عن أيادي الإرهابيين الآثمة التي دقّتها بالمعاول، كما عملت طالبان في أفغانستان ذلك من قبلها حين دمّرت تماثيل باميان التي يعود تاريخها إلى ألفي عام.
أما الزيارة الثانية، فكانت لقبر برتولت بريخت الشاعر والكاتب والمسرحي الألماني والذي يعتبر من أهم كتّاب المسرح في القرن العشرين، وهناك جلسنا في مقهى قريب، وتدفّق بلند في الحديث عن المسرح وعن بريخت الذي عاش في المنفى هو الآخر، فهرب إلى الدانمارك العام 1933 إثر وصول هتلر إلى السلطة، ومنها في العام 1941 إلى كاليفورنيا في أمريكا، التي مكث فيها إلى العام 1947، ثم عاد إلى ألمانيا الغربية، لكن سلطات الاحتلال منعته ، فاضطرّ الذهاب إلى ألمانيا الشرقية وأسّس فرقة برلين ثم نادي القلم، حتى وفاته في العام 1956.
وتحدّث بلند عن نظرية بريخيت في هدم الجدار الرابع، والمقصود إشراك المشاهد في العمل المسرحي. وحاول أن يشرح لي ما هو الجدار الرابع باعتباره جداراً وهمياً حيث يقف الممثلون على خشبة المسرح، وأبدى إعجابه الشديد بمسرح بريخت لأنه حسب رأيه مسرح يمثّل الغرابة ويجمع بين الكوميديا والتحريض، مثلما يجمع بعض المشاهد المتناقضة ليضمّها إلى بعضها في إطار واحد ليكوّن منها موضوعاً شديد الغرابة، مستخدماً بعض الأغاني. وقد حفّزني حديثه لقراءة بريخت ومسرحه لاحقاً.
والزيارة الثالثة كانت في رحاب روزا لكسمبورغ أو روزا الحمراء التي استحضرناها في برلين، والتي كان لينين يطلق عليها لقب نسر الماركسية المحلّق، وهي مثقفة ومفكرة واقتصادية ماركسية بولونية الأصل وعاشت في ألمانيا، وقد عملت مع بليخانوف في زيوريخ (سويسرا)، ومن أهم مؤلفاتها تراكم رأس المال وتزّعمت مع كارل ليبنيخت الجناح الثوري في الحزب الديمقراطي الاشتراكي الألماني، ووقفت بشدّة ضد مشاركة ألمانيا في الحرب العالمية الأولى، كما عارضت فكرة لينين حول كون الحزب الشيوعي أداة البروليتاريا لتحقيق دكتاتوريتها، واعتبرت مثل تلك الفكرة خاطئة وغير ديمقراطية (أي دكتاتورية ال 9 بالعشرة ضد 1 بالعشرة) وأكّدت على أن الديمقراطية هي الوسيلة الوحيدة لتحقيق الاشتراكية وحكومة العمال، ولعلّ ذلك تبنّاه لينين في وقت لاحق (نظرياً) حين كتب يقول : إن من يفكر بالانتقال إلى الاشتراكية بطريق آخر غير الديمقراطية، فإنه سيتوصل إلى استنتاجات رجعية وخرقاء، سواء بمعناها السياسي أم الاقتصادي.
وبالعودة إلى روزا فقد لعبت مع مجموعة من النساء الأمميات دوراً بارزاً في رفع شأن الحركة النسوية، وذلك تحضيراً للاجتماع الاشتراكي الدولي العام 1910 في كوبنهاغن الذي تقرّر فيه اعتبار يوم 8 آذار (مارس) يوماً عالمياً يتم الاحتفال به بصفته عيداً للمرأة، يُراد منه تكريم الحركة النسائية المدافعة عن الحقوق الإنسانية للنساء والحصول على حقوقهن في الاقتراع وحضر ذلك الاجتماع التاريخي نحو 100 امرأة من 17 بلداً، بمن فيهم ثلاث نساء كن انتخبن في البرلمان الفنلندي اتخاذ ذلك القرار بتمجيد ضحايا مجزرة نيويورك التي صادفت يوم 8 آذار (مارس) 1908، وبعد عام من تلك المسيرة، أعلن الحزب الاشتراكي الأمريكي ذلك اليوم عيداً وطنياً للمرأة.
وكانت كلارا زيتكين قد اقترحت ذلك على مؤتمر كوبنهاغن ليصبح 8 مارس يوماً عالمياً، وأُحتفل بهذا اليوم لأول مرة في عام 1911، في كل من النمسا والدانمارك وألمانيا وسويسرا، لكن الاحتفال الرسمي بيوم 8 آذار (مارس) بدأ في آذار (مارس) الذي تلى ثورة أكتوبر الاشتراكية في روسيا (1917) .
وإضافة دور روزا لوكسمبورغ فقد كان دور كلارا زيتكن وكروبسكايا (زوجة لينين) كبيراً، وساهمتا في اجتماع كوبنهاغن بالتنسيق مع لينين الذي كان ظلّه حاضراً من وراء الكواليس، سواءً في مناقشة وتدقيق بعض النصوص أو في بعض المقترحات، حيث كان يجلس في مقهى قريب يحتسي أقداح الشاي، ويكتب ويدوّن.
وتلمستُ موقفاً متميّزاً لبلند من قضية المرأة ومن حقوقها ومساواتها، وكيف ينبغي أن يتعامل معها على جميع المستويات في الإدارة والقيادة والعمل والأجور وغير ذلك، وكان قد أثنى على القانون رقم 188 لعام 1959 بشأن الأحوال الشخصية واعتبره خطوة أساسية مهمة على طريق تحرير المرأة، وأشار بأسى إلى معاناتها بسبب الحروب والحصار والاستبداد، وذكرت له كيف تعاملت روزا مع المومسات اللواتي اضطررن لبيع أجسادهن وليس قوة عملهن حسب، وتوقّفنا عند شجاعتها حين نظّرت إلى هذه المسألة من زاوية إنسانية ، وأكثر من ذلك حين انخرطت عملياً في قيادة تظاهرتين في مدينة كولونيا (ألمانيا) للدفاع عن النسوة المضطهدات على نحو مركّب وتوفير ضمانات صحية لهن مؤكدة أن تحرير المجتمع كفيل بتحرير النساء، لاسيّما هذه الشريحة المظلومة. وهو ما تناولته لاحقاً في كتابي تحطيم المرايا - في الماركسية والاختلاف.
توقفنا عند الإرث الفكري والشجاعة والجرأة التي اتّسمت بها روزا وعلاقتها مع هانز حبيبها، وتحدثنا عن رسائلها إلى حبيبها التي تمتلك قيمة أدبية وغنىً روحياً ، ناهيك عن مقدار كبير من البوح الإنساني والطهارة الروحية والثقة العالية بالنفس.
VII
اطّلعتُ مؤخراً على كرّاس نُشر تحت اسم الكنيسة والاشتراكية (ترجمة محمد أبو زيد، إصدار مؤسسة روزا لوكسمبورغ، 2017) على آراء روزا لوكسمبورغ بشأن الأرضية المشتركة للاشتراكية الديمقراطية والكنيسة، وتأكيدها على أن الاشتراكيين (إقرأ الشيوعيين) لا يسعون إلى الصدام مع الدين، وقد وجدت فيها ردوداً على بعض الآراء المتطرّفة بزعم اليسارية أو العلمانية، ولاسيّما في بلداننا ومجتمعاتنا، التي تندفع لمعاداة الدين أحياناً، فسيصطدمون في جدار سميك لا يمكن اختراقه، كما إن المشروع النضالي من أجل العدالة الاجتماعية لصالح المقهورين لن يتحقق ولن يُكتب له النجاح إلّا بتحالفات مع قوى اجتماعية، بغض النظر عن الإيمان أو عدم الإيمان، فتلك مسألة شخصية، ولكن في البحث عن الأهداف المشتركة ووفقاً للقيم المشتركة ذات البعد الإنساني . وتلك واحدة من الإشكاليات التي تواجه مجتمعاتنا، وكما تقول إن ضمير الإنسان ومعتقده أمور مقدسة غير قابلة للتدخّل، فكل فرد حرّ في ممارسة المعتقد والقناعة التي تسعده.
وكانت قد أسست مع ليبنكيخت وكلارا زيتكن عصبة سبارتاكوس العام 1916 التي قادت ثورة في العام 1919 وإعلان الجمهورية الاشتراكية الألمانية، لكن قوى الإشتراكيين الديمقراطيين قامت باغتيالها وألقت جثتها في قناة لاندفير في برلين بعد أن ألقت خطاباً نارياً في الرايخشتاغ، وذلك بعد شهرين من قيام جمهورية فايمر الألمانية.
وقد اصطحبت بلند إلى المكان الذي يُعتقد أنها اغتيلت فيه، في الممرّ المؤدي إلى القناة الذي كثيراً ما كنتُ أتردد عليه عند زياراتي العديدة إلى برلين برفقة عدد من الأصدقاء الذين يعيشون هناك وفي مقدمتهم هاشم المشاط وعلي ناجي بر وعصام الياسري وآخرين، وكنت قد أخذت صديقي الروائي أبو كَاطع (شمران الياسري) إلى المكان ذاته في العام 1976 عند زيارتنا إلى برلين الغربية.
واستعاد بلند معي الحديث عن حسين الرحال الذي ذهب للدراسة في برلين وشهد ثورة سباراتاكوس وتأثّر بها وعاد إلى العراق داعياً للشيوعية، ثم قام بتنظيم حلقات ماركسية مع عدد من أقرانه مثل محمود أحمد السيد وفاضل البياتي وزكي خيري وآخرين، تلك التي تمثل حلقة بغداد. وكنت حينها قد اطلعت على أطروحة الماجستير لعامر حسن فياض الذي كتب عن جذور الفكر الاشتراكي التقدمي في العراق 1978.
وتناولنا قضية النساء في روسيا وكوبا بعد الثورة، وقضايا النساء في مجتمعنا، لاسيّما ، الذي سيحصل بعد الحروب والحصار، والقوانين الغليظة التي كانت قد صدرت حينها، والتراجع عن حقوقها، وكم كان بلند حزيناً بسبب نكوص المدينة كما أسماها في بلادنا على حساب زحف الريف عليها لدرجة أن مدننا وحواضرنا تريّفت إلى حدود كبيرة وهذا شأن القاهرة ودمشق وبيروت وبغداد، حيث تنتشر العشوائيات، ناهيك عن البعد عن قيم المدينة وقيم الريف في الآن. وكم سيكون حزنه كبيراً وعيناه الواسعتان تضيقان لو شاهد أوضاع النساء اليوم حين تزدهر الشعوذة وتتفشّى الأميّة وينتشر التخلف وتتشظّى البلاد منحدرة نحو الطائفية؟

VIII
وقد استكملنا تلك الجلسة الحوارية في برلين بجلسات ولقاءات في لندن، ودار حوار بيننا حول مستقبل الحركة الشيوعية في العالم العربي بعد انهيار جدار برلين 9 تشرين الثاني (نوفمبر) 1989 وتحلّل الكتلة الاشتراكية وحين سألني عن رأيي، قلت له: نحن مثل بريخت الذي كان يقول عن الحزب: أغادره كل يوم في المساء لأعود إليه في الصباح ، قال لا بل مثل آراغون الشاعر الفرنسي صاحب ديوان عيون ألزا الذي كان يقول:
لا تذهب بدوننا في الطريق الصحيحة
فبدوننا ستكون خاطئة جداً
لربما نكون مخطئين
وتكون مصيباً
لذلك لا تبتعد عنّا.
وتناولنا العلاقة الملتبسة بين المثقف والسياسي، وخصوصاً حين يشعر الأخير أن بيده السلطة، سواءً كان حاكماً أم مسؤولاً حتى في حزب سرّي مقموع، واستعدنا علاقة ستالين بالمثقفين في الثلاثينات وما بعدها وحملة التنكيل التي تعرّضوا لها في ظل الهيمنة الجدانوفية المريرة، التي كانت تدعو إلى تسخير كل الإمكانات الفنية والإبداعية من فن وآداب وموسيقى لمواجهة الثقافة البرجوازية الغربية وتوظيف الإبداعي لصالحها السياسي والفني لصالحها الأيديولوجي، وكانت تلك السياسة الثقافية هي السائدة، بل كان بيدها القدح المعلاّ كما يقال في فترة الثلاثينيات والأربعينيات، إلاّ أنه تم التخلي عنها بعد وفاة ستالين في العام 1953 لكن تأثيراتها لم تختفِ أو تغيب، وظلّت تبسط ظلالها حتى نهاية سبعينيات القرن الماضي وثمانيناته، علماً بأن جدانوف اتهم في ما يعرف بمؤامرة الأطباء اليهود وكان أحد أبرز ضحاياها ، وكان اتهامهم بالتعمّد في إهمال صحة القياديين في الحزب الشيوعي (المقصود ستالين)، وكان جدانوف من أبرز ضحايا تلك المؤامرة.
وضحكنا كثيراً حين رويت له ما كنت قد قرأته من أن ميخائيل شولوخوف مؤلف رواية الدون الهادئ ارتجف حين سأله ستالين عن بطل الرواية كريكوري المتمرّد، المتقلّب، الشجاع، القلق، الضاج بالفحولة ومعشوق النساء، ولاسيّما لجهة علاقته باكسينيا، لماذا لم ينتم إلى الحزب؟ فما كان منه إلّا أن يجيبه إجابة تقريرية: لم أقرّر أنا يا رفيق هو الذي قرّر، فقد كان ستالين يريد النهايات السعيدة أو الإيجابية التي تعتبر إن كل ما هو إيجابي فهو ملك للحزب، وهكذا تصوّر إن انتماء كريكوري للحزب يمكن أن يعطي النموذج.
وتعرّض بألم لما أصاب المثقفون والثقافة من نكوص خلال الثورة الثقافية الصينية 1965-1976 حتى وفاة ماوتسي تونغ، حيث جرت عمليات تطويع وترويض وإهانة للمثقفين، ناهيكم عن محاولات توظيف طاقاتهم الإبداعية لصالح السلطة والجهاز البيروقراطي، ابتداء من الكرباج إلى مقصّ الرقيب، ومن العزل والمحاربة بلقمة العيش إلى كاتم الصوت، فضلاً عن وسائل أخرى أكثر مكراً ونعومة، ولكنها أكثر إيلاماً وأذى.
وعُدنا لسلطاتنا التي استهدفت المثقفين ، سواء بالعمل على تدجينهم أو دمجهم بجهازها البيروقراطي ومؤسساتها الثقافية، بالإغداق عليهم أو إغراقهم كي لا يغنّون خارج السرب، وفي كل الأحوال تحرص على عدم خروجهم عن الفلك الذي تريده أن يدورون فيه بهدف الابقاء على الصوت الواحد وتطويع وسيلتهم الإبداعية، كي لا يتحوّلون إلى نقطة جذب، خصوصاً حين يتمتعون بقدر من الاستقلالية في الاجتهاد والمعالجة والموقف.
وناقشنا الواقعية الاشتراكية التي تحوّلت تدريجياً إلى أداة تبرير للاستبداد وتمجيد الزعيم ، الفرد، حيث شكّلت كابحاً بوجه تطوير الثقافة، خصوصاً حين اعتمدت القوالب والصيغ والكليشهات لتقييم العمل الإبداعي، ولم يكن ذلك بعيداً عن مقارنة أجريناها مع المكارثية في الولايات المتحدة التي لا حقت المثقفين وقسّمتهم تبعاً لمواقفه الفكرية والسياسية، ناهيك عن أدوارها اللاحقة في التأثير على أعداد من المثقفين في بلداننا، بتغلغل بعض أجهزتها في دعم مؤسسات ثقافية وإعلامية، وهو الأمر الذي ازداد بصورة صارخة وشبه علنية أحياناً بعد انتهاء عهد الحرب الباردة وتحوّل الصراع الأيديولوجي من طوره القديم ضد الشيوعية والمعسكر الاشتراكي إلى طور جديد، وخصوصاً ضد ما سمّي بالإسلام السياسي في منطقتنا.
كما أجرينا مقارنة بين دور مثقفينا في الوقت الحاضر ودورهم في الخمسينات وكان بلند من دعاة ميثاق يؤكد معايير الحد الأدنى للاتفاق الثقافي والوطني، الذي يؤكد على حق المثقف ودوره ومسؤوليته وحقوقه الديمقراطية والمهنية، خصوصاً في ظل دعوة بإشاعة الحوار وسماع الرأي الآخر، آخذين بنظر الاعتبار التكوين الخاص للمبدع وعالمه الذاتي وما يريده من عملية الخلق، إضافة إلى وسيلته الفنية والمعايير الجمالية التي يريد إبرازها والتعبير عنها، مؤكدين على جدلية الثقافة والوعي، خصوصاً إذا ما عبّرت عن الحرية التي هي بتعبير ماركس وعي الضرورة.
IX
قدّمت بحثاً في ندوة برلين بعنوان الثقافة بين حاجز القمع وجدار الآيديولوجيا وهو ما ضممته إلى كتابي عاصفة على بلاد الشمس الذي صدر في بيروت عن دار الكنوز الأدبية، في العام 1994، والذي كتب عنه بلند الحيدري في مجلة المجلّة (السعودية) اللندنية.
وكما جاء في مقالة بلند: وقد اجتمع لهذا الكتاب عاصفة على بلاد الشمس من فضائل كاتبه في الاختصاص بالقانون الدولي، وفي العامل ميدانياً في منظمة حقوق الإنسان العربي، وفي الصحفي والكاتب والدارس ما عزّز من نهجه في دقّة المعالجة واعتماده على الحقائق الثّابتة والمؤكّدة بالوثائق والأدلّة... إنه كتاب حقيق بالعودة إليه غير مرّة لإيفاء حقّه في البحث الجاد في مقوّماته وأبعاده.
وكان محمد مكية المعماري المعروف وصاحب ديوان الكوفة قد دعانا بلند وأنا لنكوّن إضافة إليه لجنة ثقافية للديوان، ووافقنا على اقتراحه وعملنا معه لبضعة أشهر، حيث وضعنا برنامجاً ثقافياً لفعاليات فكرية وثقافية وفنية وندوات خاصة، ونفّذنا بعضها بزخم كبير، ثم اقترح علينا عقد ندوة عن ميثاق 91 Charter الذي بادر إليه نجله كنعان مكيّة، الذي اشتهر باسم سمير الخليل مؤلف كتاب جمهورية الخوف.
ورغم التأييد الكبير الذي حظي به الميثاق حيث وقّع عليه عشرات من المثقفين العراقيين، إلّا أنه لم يحتمل أن يوجّه له نقداً ، ولاسيّما في موقفه من القوات المسلحة وهو ما دوّنته في هامش لكتابي الذي صدر في 1992 والموسوم المحاكمة - المشهد المحذوف من دراما الخليج (عن دار زيد - لندن) والذي جاء فيه ومع الاتفاق الكامل من أن الجيوش غالباً ما حدّدت الديمقراطية وأضعفت المجتمع المتمدن، كلّما تضخم حجمها كان ذلك على حساب المجتمع المدني وهو ما حدث في العراق بالفعل، إلّا أن ذلك ينبغي ربطه على نحو أشد وثوقاً بقضية الصراع في منطقة الشرق الأوسط وبخاصة لحل القضية الفلسطينية، وبالتالي تخفيض عسكرة الجيوش لعموم دول المنطقة، إذ أن استمرار سياسة إسرائيل العدوانية وعدم اعترافها بحقوق الشعب العربي الفلسطيني لا يهدد السلم والأمن الدوليين حسب، بل تنذر بعواقب وخيمة، خصوصاً فيما يتعلق بنفقات السلاح وتضخيم الجيوش واحتمالات اندلاع الحروب وغيرها، وهو ما يجعل التعهد في الدستور العراقي الجديد بتحريم التجنيد الإلزامي وتقليص نفقات الدفاع والأمن الداخلي إلى 2% من مجموع الدخل القومي، إنما هو تعهد من طرف واحد ودون مقابل، خصوصاً وإن الفكرة لا تقترن ببقاء أو زوال صدام حسين، وإنما بقضية الوطن والأمة ككل (المحاكمة - المشهد المحذوف من دراما الخليج، دار زيد، لندن، 1992، هامش رقم 45 ص 79-80) وبسبب ذلك شعر بلند وكاتب السطور بنوع من الفتور وضعف الرغبة في الاستمرار، فانسحبنا بهدوء ومودّة ودون أثر يُذكر، وهو ما اتفقنا عليه.
ولأن محمد فايق وزير الإعلام المصري الأسبق في زمن عبد الناصر بحكم موقعه كأمين عام للمنظمة العربية لحقوق الإنسان يعرف العلاقة التي ربطتني مع بلند الحيدري وتعاوننا في الميدان الحقوقي والثقافي، فإنه بادر إلى الاتصال بي لتعزيتي ولنقل تعازيه إلى عائلته، وقد اتصلت بزوجته الفنانة التشيكلية دلال المفتي وأبلغتها بذلك وبحضور الصديق سعود الناصري الذي كان عضواً في اللجنة التنفيذية للمنظمة العربية لحقوق الإنسان في بريطانيا.
وقال محمد فايق في الكلمة التي ألقاها في الاحتفالية التي أقيمت لي في القاهرة بمناسبة نيلي وسام أبرز مناضل لحقوق الإنسان في العالم العربي (القاهرة - 2003) ... كان شعبان يندمج مع بلند الحيدري فكراً ووجداناً وشعراً... وينصهر مع الجواهري ويذوب في أشعاره ويتوحّد مع أفكاره... وكان يلتقي مع الشاعرين الكبيرين في إعلاء قيمة الإنسان وإطلاق طاقاته في ظل الحرّية التي عشقها ونذر حياته لها، والكلمة منشورة في كتاب أصدره المركز العربي لنشطاء حقوق الإنسان الموسوم عبد الحسين شعبان : الحق والحرف والإنسان، وقدّم له المحامي حجاج نايل مدير المركز ، القاهرة، 2003.
جدير بالذكر أن بلند الحيدري سبقني إلى رئاسة المنظمة العربية لحقوق الإنسان في لندن، وحين انتخبت رئيساً بعده وأمضيت عدّة سنوات في رئاستي للمنظمة، وكنت قد اخترت بلند الحيدري عضواً في المجلس الاستشاري مع نخبة ضمّت 15 عضواً من خيرة المثقفين العرب، بينهم الشاعر والمفكر العراقي صلاح نيازي، الذي رفد المكتبة العربية بعشرات الكتب والمؤلفات والترجمات والدراسات النقدية، إضافة إلى دواوين منها: كابوس في فضة الشمس ، والمفكر والهجرة إلى الداخل وابن زريق وما شابه -وأصدر مجلة رصينة اسمها الاغتراب الأدبي في لندن، استمرت لنحو عقدين من الزمان.
وحين تم اختطاف منصور الكيخيا الحقوقي والمثقف الليبي البارز ورجل الحوار والسلم، من القاهرة في 10 كانون الأول (ديسمبر) 1993 حين كنّا نحضر مؤتمراً من فندق السفير بالدقي، شكّلنا لجنة للدفاع عنه في لندن كان على رأسها بلند الحيدري وصديق الكيخيا صلاح عمر العلي والفنانة المسرحية ناهدة الرمّاح من العراقيين وعدد من الشخصيات العربية البارزة، إضافة إلى محمد المقرين أحد أبرز شخصيات المعارضة الليبية ورئيس المؤتمر الوطني الليبي لاحقاً وعلي زيدان رئيس الوزراء بعد الإطاحة بالقذافي وعدد من الشخصيات الفلسطينية والسودانية والخليجية والمصرية والمغاربية، وكنت قد ألفت كتاباً عن الكيخيا العام 1997 بعنوان الاختفاء القسري في القانون الدولي - الكيخيا نموذجاً، كما أنتجت المنظمة فيلماً عنه في السنة ذاتها، لكن بلند الحيدري كان قد غادرنا حينها .
وكان آخر لقاء ببلند الحيدري قبل وفاته بأسبوعين، حين دعوت لحضور اجتماع بين اللجنة التنفيذية والمجلس الاستشاري للمنظمة العربية لحقوق الإنسان، لرسم ستراتيجيات ما بعد المؤتمر، ولاسيّما للاتفاق على الملتقى الفكري السنوي الذي اعتادت المنظمة على تنظيمه، وقد قررّنا في تلك الجلسة أن يكون الملتقى القادم عن القدس والرأي الاستشاري، وقد بدا في تلك الجلسة مرهقاً وحزيناً، وبعد الانتهاء من الاجتماع أقنعته بإيصاله بسيارتي إلى منزله في منطقة إيليلنغ وحين علم بأنني أعدّ كتاباً عن الجواهري، بادر إليّ بطلب قراءته وكتابة مقدّمة له وحين عبّرت له عن سروري وشكري، قال بالعكس إنك ستمنحني الفرصة للكتابة عن الجواهري. وهو ما اتفقنا عليه ، لكن يد القدر كانت أقرب إليه.
لم أشأ أن أتطفل عليه لسؤاله عن سبب إرهاقه وحزنه، لكنه بادر للقول إنه سيجري قسطرة للقلب بناء على نصيحة الطبيب بعد أيام، ولكنه دخل المستشفى ولم يخرج منها. وأظن أن الفاتحة التي أقيمت له كانت من أكبر وأضخم الفواتح التي عرفتها خلال فترة وجودي في لندن، مهابة وحضوراً وحزناً حقيقياً.

X
تأثر بلند الحيدري بإيليا أبو ماضي وميخائيل النعيمة والياس أبو شبكة، في بحثهم عن الخلود والفناء والوجود والعدم والموت والحياة، وذلك قبل تأثره بسارتر وكيركارد وهايدغر على حد تعبيره، وحسبما يقول إن جيله شهد ثلاث ثورات لم يكن بعيداً عنها، أولها - الثورة الأخلاقية، أي الثورة على الأخلاق السائدة ، ومن هنا كان إعجابه بحسين مروان وصفاء شقيقه، والثورة الثانية اليسارية والماركسية جوهرها حينذاك، وثالثها الثورة الوجودية التي يقول إنه انفرد فيها من بين أقرانه، واستفاد في ذلك من حواراته (مطلع الخمسينات) مع عبد الرحمن بدوي.
كانت لغة بلند تشكيلية أكثر منها إنشائية، فقد ابتعد عن الزخارف، وبقدر كونها ترسم صوراً بحروف ملونة فهي ترسل إشارات ناعمة ومؤثرة في الآن، عاطفية، سداها ولحمتها، الذات بحثاً عن الأمل والإنسانية في ظلّ مجتمعات بائسة وتعاني من شحّ الحريات، وترك لنا بلند علامات دالّة على الطريق لتؤشر لتضاريس لتجاوز القصيدة الكلاسيكية.[1]
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