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شبهة الكردي: أحمد خاني (حول ما كتبه هيبت بافي حلبجة في -الوجه النقدي لأحمد خاني-)
Ομάδα: Άρθρα | Άρθρα Γλώσσα: عربي
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أحمد خاني

أحمد خاني
شبهة الكردي: #أحمد خاني# (حول ما كتبه هيبت بافي حلبجة في -الوجه النقدي لأحمد خاني-)
ابراهيم محمود

ما هو متوقَّعٌٌ:
عندما أبصرَت عيناي هذا العنوان الانترنتي (الوجه النقدي للشاعر النقدي) للكاتب هيبت بافي حلبجة، في موقع (عفرين. نت،)، لم أخفِ قلقي البالغ منذ البداية، لا بل وتوقعي، مما يمكن أن يرد في سياق المقروء، ومما لا يُعدُّ مألوفاً في لامفهومه، فأنا أصبحت على يقين، ومنذ عدة عقود، أن كل ما يكتبه بافي حلبحة، لا يكاد يخرج عن نطاق المغايرة السافرة لجملة المكتوب، أو السائد، ليس بمعنى المعرفة المثلى تنويرياً، وإنما للإثارة: الإغارة تلك التي تضع القارىء، أو المعنيَّ بما يكتب، في حيرة من أمره، وأمر كتاباته معاً (كيف يفكر في موضوعه، في من يريد التعرض له، في ذاته إزاء الآخر الذي يستهدفه بكتابة يُزعَم عن أنها نقدية، كيف يتخيل المترتَّب على كل كتابة له..)،
ذلك بسبب الطريقة (اللاطريقة مفهومياً)، تلك التي يتعرض فيها لموضوعه، ومكونات موضوعه هذا، باستعراض شخصي مرئي ملء النظر، جهةَ استحالة الجمع بين فكرة وأخرى، بين يعتبره الكلمة الصحيحة، وكتابتها لتأتي خلافاً أو اختلافاً، بين اعتباره كاتباً يستهدف معرفة، ويبتغي حواراً مع موضوعه بالذات، مع من يناقشه، والذي هو في انتظاره، أي القارىء، وما ليس كذلك! والمقال الأخير، هو نموذج صارخ في ذلك، سواء من ناحية تناول الموضوع، أو عرض أفكاره، أوما يعنيه ذاتياً، وهو يوسّع حدوداً تضيق عليه، في خطوة معتبرَة عنده، كما هو العنوان الذي يلفت النظر، ولحظة قراءة الداخل في حيازته، يغيب الوجه المحمول، في ملامحه، كما هو المفترَض في كل كتابة نقدية الطابع!
ولأن الموضوع يهمُّني، كغيره من الموضوعات ذات الصلة بما هو تاريخي وثقافي أو فكري كردياً، وخاني علمٌ في رأسه نار كردية لا تنكَر، مهما برز خلاف أو اختلاف حوله، ولهذا، فقد آثرت تتبعَ خطوات بافي حلبجة، وهو يقلب خانيه على وجوهه، تمعنت في الكتابة: رسماً ودلالات، وقد هالني ما نالني مما قرأت، أي فيما ضمَّنه من تصورات، أو أثاره من أقاويل، دون أي توثيق فعلي يذكَر (ذكر الاسم غير كاف)، وتساءلت بيني وبين نفسي: هل أنا إزاء مقال، بحث، دراسة، شذرة طويلة، هذيان حداثي النسَب، يخص الكاتب، وأنني- أيضاً- في وضع بات لزاماً علي أن أحيط بمجمل مقومات المكتوب، وسيكولوجيا الكاتب بالذات، أبستمولوجيته المقحمة رغبة في التمايز، وليس سواه، دون أي تفسير مبرّر: فلا جملة تسند شقيقتها تعبيرياً، أو قواعدياً وصرفياً، بل، لا جملة بالكاد تتوازن في بنيتها التركيبية، ولاعبارة تنفتح بمنطق القراءة المعهودة، كما ينبغي، على ما قبلها أو ما بعدها، ولا مقطع يبوح بسرمنتظَر، ثمة (حيصبيصية) هائلة، وذلك من ألف المكتوب إلى يائه في المجمل.
لا بأس أن أذكّر من يهمه واقع حالٍ من النوع الآنف الذكر، وقد كنت في بيت أحد الأصدقاء في مدينة هانوفر الألمانية، وبتاريخ 30-4 2006(يوم الأحد، مساء)، وقتها كنت أقوم بجولة في بعض الدول الأوربية، بوازع ثقافي، حيث اتصل بي الكاتب بافي حلبجة، ودار كلام كثير، أقل ما يمكن القول فيه أنه استفزازي في الصميم، وزبدة المستفَز، قوله لي (أنه بصدد كتابة مشاريع، وسوف تكون هناك نظريات هائلة مستقبلاً)، أخفيت استغرابي كثيراً، وأنا أستعيد بافي حلبجة الذي كان بين ظهرانينا قبل عقد من الزمان، إن لم تخنّي الذاكرة، من خلال ما كان يقوله ويكتبه، وهجرته الذاتية إلى أوربا المانيا، ومن ثم صمته كثيراً كثيراً، وخرقه لهذا الصمت بين الحين والآخر بكتابات (وكما تشهد مواقع انترنتية)، لا يُعرَف كيف السبيل إلى قراءتها، وما المراد منها تحديداً، من جهة تنوع المقاصد المتعارضة، وذلك من خلال العنف الهائل، ممثّل غواية الأنا الفارطة والمرعبة تماماً، وأذكر أنني قلت له حينها (وكان هناك أصدقاء يسمعون ذلك)، وربما بنبرة حادة: لا يليق بك أن تصف ما تقوم به بالطريقة هذه، وأنت تمدح نفسك، دع التقويم للآخرينّ !
ثمة ضرورة لإيراد بعض مما يدخل في عالم المنتظَر أو الموعود:
(عندما تتماثل الكلمة والفكر- التضاهي والنماهي- يرتقي المنظور نحو تعالية منقطعة النظير، يصاخ السمع إلى ومضات الوجدان - ينحدر التألق نحو برج السماوات- يتحد الذات والموضوع إلى درجة التفاعل الأجتماعي المزمن-ثقافة نوعية ومتميزة- استبطانية للفكرة البؤرة الكامنة والقابعة في غياهب البنى البنيوية للآن الآنئذية- ارتأيت وتفادياً للمعالجة السطحية الكلاسيكية التي أرتطم بها كثير من الزملاء في كوردستان ~ سوريا و كوردستان ~ عراق . وتهافت النص لديهم دون الأرتقاء إلى مستوى النقد التحليلي وبالتالي إلى مستوى التألق الخاني ، أن اؤطر نفسي في هذه المعالجة (طبعاً، المقصود هو خلاف ذلك)- وذهنيته التي تتألق هنا وتتقد هناك وتخبو هنا وتخمد وتهمد هناك- مرتكزات وأسس وأس ديالكتيكية أكثر متطورة- يقرر رأيه كالأسفين-، فالعشق درجات أتعسها الحب وأبجلها وأقدسها العشق السرمدي-، ومن ناحية أخرى فإنه في الظاهرية إحتفظ بالأسماء-. لكن من الجانب التابلوي فإن الأستبطان القصصي يجنح نحو الضحالة الموضوعية بعد أن يتجاوز الواقعية المفرطة ، زد على ذلك إن عدم تكثيف الأحداث القصصية مردها افتقار الحياكة القصصية إلى الأدوات الموضوعية الملائمة وروحانية وغيبانية شخصانية أحمدي خاني نفسه - طبقاً لأسس و إينية يرومها بنفسه - يدعي الدكتور نورالدين ظاظا- معتمداً على مقولة متناقضة فحسبه إن هذه القصة أتت من الشرق- نحن من جانبنا نرفض هذه التصورات الهزيلة الآيلة للسقوط- لأستكفاء الأسم نفسه بنفسه- وخلوص الأحاسيس- نجده شاب للعشق البسيط الساذج المعطى دفعة واحدة-. إن الموضوع الأساسي للأسطورة ليس الحكمة إطلاقاً إنما هو حرمة العشق السرمدي- وفيما يخص أسم آلان فأبغي أن أدحض مزعومة ليسكو القائلة بثمة شعب في شمال قفقاس أما أن يكون أسم عشيرة فذلك النقيض تماماً لقواعد اللغة الكوردية- أحمدي خاني لا يقصد هذه الحالة على الإطلاق ، فهو من الأنصار الصريحيين لنظرية الفيض الإله- السيد ظاظا – مع شديد الأسف – لا يدرك ما المقصود الحقيقي بمفهوم الأغتراب- وبكل أسف فإنه أخفق معرفياً وعلى المستوى الإدراكي- فبأقتضاب وجيز- كطرفين مكملين متممين - فالعبرة بالمحصلة وعموم وجدية النتائج وليس بالتمرد الهزيل الآني النتائج- فوجدتها مفقودة وأحياناً مبتورة وأحياناً يناطها أغتيال عجيب....الخ)!
هذه الجمل والعبارات التي أوردتها، والتي تتوزع في بنية المادة، أوردتها، باعتبارها (هي وغيرها طبعاً)، شاهدة على حالة الهذر الكلامي، على أن ليس من جملة أوعبارة لها معنىً يمكن التوقف عندها، وبدقة أكثر،على أن الكاتب لا يريد أن يلفت نظر القارىء المعني، بما هو مفيد فعلي، وإنما بما لا يمكنه تلمسه قولاً محفّزاً للتفكير. إن استفزاز القارىء، ودون سبب مستحق، هو مبتغى كتابته هنا!
ويمكن القول بصراحة تامة، أنني أخجل تماماً من قراءة مادة كهذه، واعتبارها مادة معرفية في مجملها، لأنها بالقدر الذي تسفّه به ما كتبه آخرون، وهم لهم باع طويل في الكتابة المعيَّنة، وتسترخص تاريخ المفهوم، بصدد الوارد فيه، من النواحي كافة، بالقدر ذاته، تسفّه حقيقتها القولية، لأن ما يميّزها هو استهتارها بالكتابة بالذات:
كما في الجملة الأولى، وما بعدها، من ناحية الربط بالطريقة المشار إليها، كبناء لغوي صرفي وكمفهوم (مثلاً، ومن ناحية الدقة، نقول: عندما يتماثل الفكر والكلمة، أما على صعيد المعنى، فلا بد من ربط الفكر باللغة أو بالعكس، أما من جهة المفهوم، فمن الاستحالة حصول التماثل)، وحالة التضاهي وليس المضاهاة، طبعاً والتماهي (وضعِت المفردتان، من باب التلاعب المقصود باللغة، كما يقول السياق، ولكن لعباً كهذا، لا يغيّب خفة اللاعب وجهله بقواعد الملعوب به)، وما لا يمكن استيعابه في اللاحق، واللاحق على اللاحق، حيث فعل المضارع المبني للمجهول، بالنسبة ل(يصاخ)، في غير محله كلياً، وتحويل ومضات الوجدان، إلى مؤثّر صوتي،وتلو الانحدار بالارتقاء، والتفاعل الاجتماعي المزمن، وإلحاق الحب بالعشق وليس العكس،إيراد (اقتضاب وجير) وكأن ثمة تمييزاً بينهما، وهكذا الحال هنا مع (مكمل، و:متمم)، و(أستكفاء، بدلاً من اكتفاء...الخ). إن هيبت يريد أن يصدم قارئه، أن يستقزه، كما ذكرت،على طريقة: يكفي أن تعلم أنك تسمع جديداً، لتعلم أنه يقدم ما هو مفيد!
اللامعنى هو العلامة الفارقة لعموم المكتوب، في هذه (الابستمولوجيا الكردية)، هذه العبارة التي استهوته دون أي احتساب معرفي، وإزاء هذه الأسطورة (مم زين)، وبسهولة مماثلة، وليس سواها (حكاية) أو (ملحمة) معينة، كما يعتمدها البعض بحماس، دون أن أي تقدير بالمترتب عملياً،على مفهوم (الأسطورة)، وهي خلافها!
في معمعة اللامعنى:
يحاكم هيبت من كتب عن مم وزين في النطاق الموسوم، باعتبارهم بعيدين كلياً عما تعرضوا له (ارتأيت وتفادياً للمعالجة السطحية الكلاسيكية التي أرتطم بها كثير من الزملاء في كوردستان ~ سوريا و كوردستان ~ عراق. وتهافت النص لديهم دون الأرتقاء إلى مستوى النقد التحليلي وبالتالي إلى مستوى التألق الخاني ، أن اؤطر نفسي في هذه المعالجة..)، إذ إن مقصوده هو المعالجة السطحية التي تميز بها (من سماهم)، ليكرر دون مبرر، إلا مبرر اللامعنى (وتهافت النص لديهم)، ليشرح ما ليس يلزم (دون الارتقاء..)، إذ طالما النص متهافت ، فكيف يكون ارتقاء، لهذا يرتئي أن (يؤطر نفسه)، ولعله أصاب هنا، ما هو غافل عنه، أعني اعترف واقعاً بحقيقته الداخلية، عرَّف بحمولته المعرفية نفسياً، دون أن يكون ذلك مبتغاه صراحةً بالتأكيد، لأن التأطير،انغلاق، وبقاء في نطاق تهافت معين، يظهِر أنه مجانبه!
يحاكم الذين كتبوا عن مم وزين، بعمومية لافتة، كما لو أن النص الذي يتصدى لنقده، مفتوح له بعموم أسراره، وهو أكثر من كونه نصاً أدبياً، أكثر من كونه نصاً تاريخياً، أكثر من كونه حكائياً...الخ، ويطلق عبارات لا صلة لها بما هو بحثي، كما تقول كتابته من مبتداها إلى مبتداها أبستمولوجياً هنا، إذ إن احترام الآخر (ممن كتبوا، وما أكثرهم)، ينطلق من احترام الذات تماماً، وهذا تجسيد لعنف مروّع، يلوّن ما يكتبه، وهو يثمّن خاني، ويسفهه كذلك، لأن الفارق بين البداية والنهاية فظيعة حقاً، وهو في مجمل كتاباته المقروءة، لا يستثني أحداً من عبارة دحضية،أو رفضية لما يكتب، مهما علت مكتبته، أو ذاع صيته معرفياً أو فلسفياً....الخ!
لا يتوقف عند أي عبارة إطلاقاً، من ناحية التركيب والعلاقة البينية، بقدر ما يسترسل في الكلام، ودون توثيق مستوجَب، وهذا يمحق مجمل الكلام، فخاني عظيم وسفيه، مؤرخ وعالم وشاعر، وعالة على مجتمعه، وهو حصيلة ما اجتُزىء منه شعراً!
كان عليه أن يورد بعضاً مما أورده الآخرون، على أن ذلك يمثل وجهات نظر،في نص حكائي شعري الطابع، يتحمل قراءات لا حصرلها، لكنه نسف كل القراءات، ولم يدَّخر جهداً، وبنوع من الاحتقار المريع، لشخص لا ينكَر في اسمه المعرفي: تاريخاً ومقاماً وريادة بحثية، وأعني بذلك الراحل الدكتور نورالدين ظاظا، وهو ينال منه،كما لو أنه دخيل على الكتابة، وما قام به،من ترجمة ل(مم آلان)، لليسكو العظيم في جهده التوثيقي والتخديمي لما هوكردي: تاريخاً ولغة وفولكلوراً مع الراحل جلادت بدرخان وغيره، منذ أكثر من نصف قرن( انظر بالنسبة لليسكو، مثلاً، كتابه جبل الأكراد، أو نشاط المريدين بالكردية، طبعة ستوكولهم، 1993)، في الوقت الذي كان يستهجَن فيه كثيراً، من يحاول التعرض بحثياً لما هو شعبي: قصصاً وحكايات أو فولكلوراً، وأظن أنه لولا ترجمة ظاظا ل(مم آلان)، لربما بقي النص في أصله الفرنسي حتى الآن، في انتظار صوته الكردي، وأن مقدمته الجميلة أي ظاظا، وما فيها من حرص على ما هو فولكلوري،وكردي أثير،تشكل عملاً بحثياً يستحق التقدير والمقاربة النقدية، وخصوصاً عندما يدعو إلى متابعة القراءة في هذا المنحى لخدمة الشعب الكردي (انظر مقدمته الكردية، ل (ملحمة مم آلان، دمشق، 1973، ص 30)!
هيبت لم يجد بغيته إلا في شخصين، أكثر من غيرهما، لهما مكانة بارزة لدى الكرد، في المسار الموسوم: روجيه ليسكو، وهو (يدحض) ما يسميه ب(مزعومته) وليس (زعمه)، والتعامل مع النقد،لا يتطلب مثل هذا التسفيه الاعتباطي للآخر (وأي آخر هذا: مكانة ثقافية؟)، فقد أبدى رأيه، ويمكن تقديم البديل بحجة مماثلة، لأن الموضوع ليس مناقشة حول تاريخ صريح، والثاني، كما ذكرت، هو الدكتور ظاظا الذي كان له حصة الأسد في التقريع، في كل ما أثاره بصدد خاني، بصدد الاسم، ومفهوم الاغتراب وغيرهما، كما لو أن لا صلة له بالكتابة كلياً، وفي مجاله الفلسفي تحديداً، ليكون المكتوب عنه، الصورة الأمثل عما هو ضيّق أفقاً عند ناقده، حيث إن ظاظا، لم يقدم سوى دراسة، لها حضورها الثقافي والتاريخي والأدبي الجلي قيمة، من وجهة نظر باحث، مفكر، لا تنكَر أصالته البحثية، ويبقى الاختلاف قائماً، لأن من المستحيل اعتبار ما يتقدم به أحدهم من نقد ما، حول ما جاء به خاني،على أنه ليس كذلك، كونه شاعراً في الأساس، ولأن الحكاية الشعبية في الأساس (وليس الأسطورة ثانية)، تنفتح على ما لا حصر له من التأويلات، ومن هنا كان التنوع في قراءتها،أي أكثر مما قدَّمه الدكتور عزالدين مصطفى رسول وظاظا، وحتى نزار آغري في جنايته الجلية قراءة لها،أي بسلبية تامة،يبررها موقف شخصي متحيّز( انظر كتابه كان يا ما كان قراءة في حكايات كردية دار الزمان، دمشق، 2006)، وقد كان هذا بحاجة، ليس إلى قراءة ما كتبه، وهو يسفه ما نطق لسان خاني، ومن حاول التحرك في إثره، وإنما إلى نقد متعدد الجوانب لأبعاد قراءته، قراءته ذهنياً، ويبدو أن هيبت تجنَّبه، لأسباب، لا داعي لذكرها (اعتبار أن كتابه ليس في متناول يديه ليس حجة)، فقد نشِر عنه الكثير انترنتياً..
أما عن سخط بافي حلبجة على ليسكو وغيره، وعلى اسم مم ففيه عجيب وغريب، عجب وغرابة شخصية الكاتب في مسلكه الكتابي، من جهة تسفيه من يقول بأن الاسم مأخوذ عن محمد، وما الغرابة إذا كان اسمه اختصاراً لمحمد، ماالذي يؤكد على أنه ليس كذلك، أو أنه غيره؟ الاجتهاد البحثي، يضيء معالم اسمه، وتاريخ الحكاية الشعبية، والنص الشعري لخاني، دون أن يقلل من أهمية كل كتابة هنا، رغم أن ظاظا، لم يأت بهذا التأكيد المفترَض من عنده، وإنما ثمة من أفصح عنه، وهو أحمد كسروي تبريزي، منذ قرابة ثمانية عقود زمنية، وتبناه آخرون من بعده،وأن الاسم، وكما ذهب في ذلك جمال رشيد أحمد، وباجتهاد الباحث والعالم الأثري،على أنه ليس اسلامياً،كون اسم مم شائعاً (في البلاد القفقاسية وشمال إيران وانتشر بين الكرد والديلم، إما بالصيغة نفسها، أو بصيغة مملان المركَّبة (مم+لان).)، حيث آلان في الأصل اسم عشيرة قديمة، اتحدت بالكرد فيما بعد..الخ (انظر حول ذلك، وبتوسع، ما كتبه جمال رشيد أحمد، في : لقاء الأسلاف الكرد واللان في بلاد الباب وشروان- منشورات شركة رياض الريس،لندن، ط1، 1994،الفصل الرابع منه)، ورغم أن الباحث القديرهنا قد قدَّم الكثير مما يفيد حول الاسم والنسبة وخطوط التحرك للشخصية، إلا أن باب البحث والمتابعة يبقى مفتوحاً على مصراعيه، وليس من جزم أو حُكم قطعي في أي مقولة حول ما تقدم، كما حاول هيبت، وهو يفصّل في مقاصد خاني، وما يخص مم وغيره، كما لو أن ليس من قول يورد إلا باعتباره حقيقة مطلقة،دون أي إثبات يذكَر،وهذا منتهى الجهل،بأهم قواعد البحث العلمي والتاريخي.
المضحك على طول الخط:
أ- مضحِك الاسم:
أورد المقطع الذي يتحدث فيه عن مم آلان، وكيف نقَّب في اسم مم، وصلته ببعض مما هو كردي، ومن باب الطرافة اللافتة (ممي آلان : بلا منازع فتى في البدايات من العمر يتقد حيوية وجمالاً وفتوة ، وهو بهي الطلعة وله من الوسامة الحظ الأوفر. ومن ناحية أخرى: يقال لصدر المرأة المتزوجة في اللغة الكوردية (بيسير (في حين يقال لنهد فتاة في مقتبل العمر وغير المتزوجة (مميك). ومن الناحية القواعدية فإن (يك) التي تلحق نهايات الكلمات تتضمن مفهوم التصغير، أمثلة (دار، دارك) ، (مال ، مالك) ، (جود ، جودك) ، (قحف، قحفك) ، (دارجيت، دارجيتك ) . ومن الناحية الزمنية فإن الكلمة الأصلية قبل أن يلحقها (يك) يجب أن تكون أولى بالوجود من الكلمة الفرعية المشتقة ، أي (دار) قبل (دارك) و (مال) قبل (مالك (وطالما إن كلمة (ممك) موجودة بالتأكيد دون شبهة أو شك فما هو الداعي إلى رفض كلمة (مم) التي هي الأصل من الزاوية القواعدية والزمن الموضوعي وطالما إن المعنى لايتنافى مع شخصية ودور – مم – بل يندمج ويتطابق معه إلى حد الذوي و الكمال ).
تُرى ماذا يريد أن يقول، في كل هذا الهذر الكلامي، أو هذيانه؟ هل حقاً ثمة علاقة بين اسم مم وما أثير في ظله؟ تحدثت ُعن حق الاختلاف في الاجتهاد، فهل كان من حقه فيما ذهب إليه، لترك الطرافة المضحِكة جانباً؟ ليس من اجتهاد كلياً! لأن ليس من علاقة، أي علاقة بين ما أورده واسم مم؟ أهي قطعية في وجهة النظر؟ لا أراها كذلك، وإنما لأن توهماً جلياً في الموضوع، هيَّأه لهذا التوجه، وهو بداغريباً حتى على بعض الكلمات الكردية التي نطق بها، أو تفتحت بها قريحته الكتابية:
أولآً،لأن الكلمتين: بيسير، ومميك (وكان عليه أن يكتبهما بالكردية، لتتوضحا أكثر، أي pêsîr، وmemik، حيث الكلمتان تخصان المرأة، وليس في التفريق بينهما، لأن الأولى تشير إلى الثدي عموماً، أما الثانية، فهو الثدي ذاته وهو في وضعية تصلب ( الصدر الناهد)، وأن عبارة ( serê memkê wê)، أي (حلمة ثديها)، وهي تقال للفتاة والمرأة المتزوجة، وكما نقول أيضاً serê pêsîrê ، بالنسبة لحلمة الثدي، وحتى بالنسبة لمفردة memik، يظهر أنها صات صلة حسية تصويرية بmemik، أي الرضَّاعة، أو اللّهَّاية، وبالتالي فإن memik، تقتصر على الرأس الحلمة، أما serê memikê، فتشمل الهامة ، أي من الأعلى...
ثانياً، لأن ليس من علاقة كلياً بين (مم) و(مميك)، كما توهَّم الكاتب، كون الكاف من أصل الكلمة، وليس من باب التصغير.
ثالثاً، وفي باب فقه اللغة، ليس التصغير وارداً فيما جيء به، كما هو متصوَّر سابقاً، حيث إن كلمة (دار)، وكان يجب أن توضَّح، هل هي شجرة (dar) أم عصا، وأن (darek) بدورها تستوجب التوضيح، أي هل هي شجرة واحدة، أم (عود يابس)، وكذلك بالنسبة ل(مال- مالك)، أي (mal- malek: بيت، بيتٌ واحد)، أي للتفريق...الخ، وأن التصغير هو فيما لم يأت على ذكره كلياً، مثلاً( dar: شجرة)، (darek:شجرة واحدة)،( darikek: شُجيرة)، أو (mal-malek-malikek)...الخ.
ب- من جهة المكانة:
يبدو أن الكاتب، لا بل يظهر، أنه لم يقرأ حكاية (مم آلان)، كما يجب، ولا دقَّق في النص الشعري، حيث يقصيه عن زعامة العشيرة، ناسياً، أو متناسياً، أن زعامة العشيرة، تنتقل وراثياً، كما في حال في الكثير من الأنظمة الملكية والأميرية وغيرها.
ووجه الطرافة الآخر، بصدد (آلان)، خلاف كل المتداول، ودون أي تفسير يستحق الذكر (فإن أسم ( آلان ) يجنح نحو مفهوم الشاب النحيف النحيل في بعض اللغات الأوربية ، تلك النحافة التي تتضمن كثير من الوسامة والرشاقة والأبتعاد عن الملذات الحسية الغبية)، هكذا ببساطة، يذهب بعيداً، ليبقى بعيداً جداً، في مستوضَحه، ودون أن يذكر في أي لغة، واللغات الأوربية كثيرة، وليظل سؤال: من أين جاء بمثل هذه التصورات الغريبة (وخصوصاً مفردة الغبية المثيرة للتهكم هنا)، غرابة تهيؤات صاحبها نفسياً، دون إجابة، في تقديم المعنى وتوصيفه كذلك، وهنا أيضاً يمكن الرجوع إلى ما أثاره صاحب (لقاء الأسلاف) في ذات الفصل، أما بصدد ربط اسم آلان بلغات أوربية، هكذا من منطلق إيحائي، دون مراعاة حرمة كل لغة، وضرورة الحذر في المقارنة بسهولة، لأن ثمة ما لا يسر إن فتحنا باب كل لغة على أخرى، دون مراعاة البعد التاريخي والفقهي في ذلك.
وفي الوقت ذاته، لا أدري ما الذي أشغل ذهن الكاتب أوربياً هنا، وفي أي لغة، لأن ليس هناك ما يفيد في المجال هذا،فما أعلمه قراءة، هو أن صاحبي كتاب (الأثنوس والتاريخ- الطبعة العربية، ص69)، يذكرون أن معنى اسم آلان عند بعض شعوب القفقاس هو (الصديق)، وأن معنى هذا الاسم بالتركية هو (الميدان)، وكذلك فإن مفردة (meme) ثانية بالتركية تعني (ثدي)، ولكن الجدير بالقول هنا، كذلك، هو أن الكاتب، لا يريد أكثر من إلهاء القارىء، على أن ما لديه ليس لدى أيٍّ كان، دون أي إمكانية لتأكيد ما هو مثار، كما هو المقروء عنده !
ج- من جهة التطابق:
مم هو خاني! هكذا ببساطة أخرى، ربما كان ثمة علاقة، وهي موجودة، أما التأكيد، فتوهمٌ آخر، لأن ليس من تفسير أو دليل يظهِر هذا الجانب. فالكاتب لا يبتكر موضوعه، أو يبدع فيه، إن لم يكن من حافز نفسي (وهنا يمكن القول على أن خاني، عندما إشار إلى أن ماقدمه في مم وزين، من إبداعه الذاتي، هو فيما أضافه، وحوَّر فيه، فتكون غلبة الفرع على الأصل، من خلال مجموعة المؤثرات الاجتماعية والتاريخية واللغوية، قائمة اللغات التي مزج فيما بينها، بطريقة لها شأن بتاريخها الزمكاني والثقافي، وليس لعجزه عن التحدث بالكردية الخالصة، وهي مؤثرات قدَّمت مم وزين، أو حتى ممو زين ليأتي الاسم تحبباً فقط هنا، على مم آلان نظراً للممتلَك المعرفي والثقافية الخاصة بمستجدات عصر خاني،ورؤيته لأحداث عصره)، أما هيبت فيقطع في تأكيده، على أن مم هو خاني، وبإطلاق، كما ذكرتُ، ووفق تصور كهذا، يمكن القول، وهنا فقط، أن ما كتبه هيبت يجسد حقيقة شخصيته تماماً مسلكاً وتفكيراً قلباً وقالباً، رغم شساعة الفارق طبعاً بين الاثنين!
د- مضحِك اللغة:
أن تتسلسل أبيات عدة، في الحكاية الشعبية ذات الطابع الملحمي مم وزين، لخاني، خلواًمن كلمات كردية لافتة، فلا يعني هذا أن خاني، تصرَّف في هذا المقام عن عجز، وإنما لابد من التعرض لطبيعة الثقافة المتداولة، ولسياسة اللغة المعمول بها آنئذ، حيث تتسلسل أخرى، خلواً من أي كلمة أخرى غريبة، وطعن هيبت في القصوراللغوي عند صاحب نوبهار و مم وزين، يذكرنا بآغري، متهكماً وشامتاً، دون أدنى اعتبار لما جاء به خاني في سياق البناء الحكائي الشعبي، بسرد لغوي يعرّف به متعددَ لغات، إنما المراهن على لغته الكردية، قبل سواها (انظر حول ذلك، نقدي لكتاب نزار آعري، في كتابه كان يا ما كان..في مقالي: نعي الكرد فولكلورياً نزار آغري ومشكلة الذات الناطقة كردياً، في موقع عفرين نت، 24-52007، وانظر كذلك، حول الجانب اللغوي عند خاني قاموس مم وزين، في جريدة KURMANCÎ، باريس، العدد161995)..الخ، والمفارقة هنا، مجدداً، هي في عدم النظر إلى خاني من منظور التعدد اللغوي، وما كان يريد تحقيقاً، رغم سهولة تلمس التنوع، وإنما محاولة رؤية جانب دون آخر، رغم تعظيمه بدايةً..!
تُرى، هل يحتاج خاني، حقاً، إلى شهادة من يجزّىء في تكوينه الشخصي والثقافي، ليظهره بالطريقة التي يرغب؟ وهو في مجمل ما قدَّمه أبلغ شهادة على مدى تمكُّنّ قارئه من التكيف مع عالمه الحكائي والشعري، وكرديته الجلية في تضاعيفه، أم أن قارئه، وإثر قرون عديدة، هو من يحتاج إلى شهادة حسن سلوك ثقافية من لدن خاني؟
إن استمرارية خاني،رفق حكايته المسرودة بكيفية أدبية معينة،هي الرد النافذ هنا!
ر- مضحِك التوليف:
حين يربط خاني بما هو تصوفي، معتمداً على حسن هاشمي، وبتواكلية مفرطة، وأنه من أصحاب نظرية الفيض الإلهي، أووحدة الوجود، وهذا توهم جديد، لأن قراءة مدونته الشعرية، تتضمن ما هو مختلف، على الأقل، فيما أثاره بصدد انتمائه القومي في ذلك الوقت، حيث لا يمكن أن يوجد صوفي صرَّح بانتمائه هكذا، لا ابن عربي الذي هو من أصحاب (وحدة الوجود)، ولا سواه من أكثر المتصوفين شطحات، كما في حال الحلولي الحلاج، في (طواسين:ه) بجلاء!
وحين يربط خاني بما هو فكري، وهو أديب وشاعر، وليس باحثاً فلسفياً، ليجهز عليه في النهاية، وقد أعلى من شأنه كثيراً بداية، وهذا يرتد إلى الذات المذررة للكاتب.
وأشير هنا، إلى تذكيره بحال الكرد، وما آلوا إليه وقتذاك، إثر معركة (جالديران)، وهو يحدد زمنياً ب(ما ينيف عن ثلاثمائة عام)، وهذا خطأ معلوم، لأن مفردة تنيف: نزيد، لا تستخدَم إلا لأن مفهوماً تقريبياً، هو الموجود، وجالديران: المعركة،كانت سنة (1514م)، أي الصحيح هنا هو (منذ خمسة قرون تقريباً)، ذلك الوضع الذي يرتد بدوره،ومن الناحية النفسية والثقافية على الكاتب بالذات، في طريقة تعرضه لما هو تاريخي، ولما هو معاش في مجتمعه، وداخل ذاته، فالتفكك المجتمعي كردياً، إذا كان يمكن النظر في حقيقته، لكان ما كتبه هيبت أسطع مثال على ذلك (أي في تجسيده السلبي غير المسمى)، وقبل أي كان هنا.
ربما كان علي أن أتوقف هنا، وأنا أوجز، ما يمكنني قوله، تقويماً للمكتوب الموسوم:
إن قراءة المادة تلك، وبغض النظر عن المعرفة المباشرة لصاحبها (معرفتي أنا)، وفي المنظور التحليل النفسي، تشي بوجود شخصية، ليست مأزومة من الداخل فقط، وإنما غير منضبطة، وعدائية بقدر لا يستهان به من العنف الفائض، والذي يجد مستقره أو مرتكزه
في مكونات ما تقدمَّ، أعني في حيثيات ما يمكن اعتباره احدى نظرياته العظمى، تلك التي أعلمني بها، وبالتأكيد سواي، فأي نظرية أخرى في الانتظار يا تُرى؟
[1]
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Άρθρα Γλώσσα: عربي
Publication date: 04-01-2008 (16 Έτος)
Publication Type: Born-digital
Βιβλίο: No specified T4 270
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Γλώσσα - Διάλεκτος: Αραβικά
Τύπος Εγγράφου: Alkukielellä
Χώρα - Επαρχία: Kurdistan
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